
राजाधिराज भगवान महाकाल की सवारी न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह उज्जैन की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक विरासत का जीवंत प्रमाण है। एक दौर था, जब सिंधिया और होलकर महाराज सवारी में लाव-लश्कर, सेना के साथ सम्मिलित होते थे। सदियों पुरानी यह परंपरा आज भी श्रद्धा और भव्यता से निभाई जा रही है। वर्षों से सवारी के साथ राजा-महाराजा की पोशाक धारण कर सबके आकर्षण का केंद्र बनने वाले स्वामी मुस्कुराके यानी पं. शैलेन्द्र व्यास ने बताया कि इतिहासकारों और प्राचीन ग्रंथों के अनुसार, ग्यारहवीं शताब्दी की पांडुलिपियों में महाकाल सवारी का उल्लेख मिलता है।
राजा भोज ने बनाया राजकीय उत्सव
परमार वंश के महान शासक राजा भोज ने इस परंपरा को एक राजकीय उत्सव का रूप दिया था। उन्होंने सवारी में नटों, लोक कलाकारों, संगीतकारों और विभिन्न लोक परंपराओं को सम्मिलित किया। राजा भोज स्वयं भी पालकी के आगे अपने लाव-लश्कर के साथ चलकर भगवान महाकाल को राजकीय सम्मान प्रदान करते थे।
राणौजी सिंधिया ने सवारी परंपरा को नवजीवन दिया
सवा दो सौ साल पहले, मराठा शासनकाल में सिंधिया वंश के संस्थापक राणौजी सिंधिया ने महाकाल मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया और भगवान महाकाल की सवारी परंपरा को नवजीवन दिया।
राणौजी स्वयं भी सवारी में शामिल होते थे
उन्होंने इसमें नए रथों, गजराजों और सजीव लोक परंपराओं को जोड़ा, जिससे यह आयोजन और अधिक भव्य बन गया। राणौजी स्वयं भी सवारी में शामिल होते थे और पालकी के आगे चलकर भगवान महाकाल को राजाधिराज का दर्जा देते थे। इसके बाद स्वतंत्रता पूर्व काल तक सिंधिया और होलकर राजवंशों के प्रमुख महाकाल की सवारी में राजकीय रूप से सम्मिलित होते रहे। वे पालकी के आगे चलकर यह संकेत देते थे कि राज्य का वास्तविक शासक स्वयं महाकालेश्वर ही हैं।