Dilip Kumar को ‘प्यासा’ में कास्ट करने के लिए Guru Dutt ने मान ली थीं सारी शर्तें

महान फिल्मकार अभिनेता और निर्माता गुरु दत्त (Guru Dutt) का ये जन्म शताब्दी वर्ष है। गुरु दत्त के व्यक्तित्व और कृतित्व का फलक व्यापक है। उनकी फिल्मों में मानवीय संबंधों का ऐसा यथार्थ चित्रित होता है जो दर्शकों की आत्मा में धंस जाता है। वो समाज जीवन में उलझे रिश्तों की गांठ को सुलझाने की बेबसी को फिल्मी कैनवस पर अलग-अलग रंगों से उकेरते हैं। जन्म शताब्दी वर्ष पर अनंत विजय ने गुरु दत्त की फिल्मों का स्मरण किया है।

किसे पता था कि अपराध कथाओं पर सफल फिल्म बनाने वाला एक निर्देशक दर्द और संवेदना के तार को ऐसे छुएगा कि उसकी फिल्में क्लासिक और कल्ट फिल्म बन जाएंगी। मात्र 39 साल की उम्र मिली लेकिन उस छोटे टाइम में हिंदी सिनेमा को अपनी कला कौशल से झंकृत कर देने वाले कलाकार का नाम है गुरु दत्त।

असिस्टेंट डायरेक्टर बनकर शुरू किया करियर
अपराध कथाओं पर आधारित उनकी सफल फिल्मों बाजी, जाल, बाज और सैलाब की चर्चा कम होती है। गुरु दत्त को हिंदी सिनेमा में इन्हीं फिल्मों से पहचान मिली थी। गुरु दत्त ने ज्ञान मुखर्जी के सहायक के तौर पर काम करना शुरू किया था। माना जाता है कि हिंदी फिल्मों में ज्ञान मुखर्जी अपराध कथाओं पर आधारित फिल्मों के पहले कुछ निर्देशकों में से एक थे। अब उन कारणों की चर्चा करना जरूरी लगता है कि एक अपराध कथाओं पर फिल्म निर्देशित करने वाला सिद्धहस्त निर्देशक इतनी संवेदनशील फिल्मों को कैसे साध सके।

इन तीनों के बिना अधूरी है गुरु दत्त की कहानी
गुरु दत्त के शताब्दी वर्ष में जब हम उनकी कलात्मकता पर बात करते हैं तो उनके साथ के लोगों की बात करनी चाहिए जिनके साथ ने गुरु दत्त को महान बनाया। कलाकार गुरु दत्त की शख्सियत तीन व्यक्तियों के बिना पूरी नहीं होती है। यै हैं गीता दत्त, वहीदा रहमान और अबरार अल्वी। जब गुरु दत्त अपनी पहली फिल्म बाजी निर्देशित कर रहे थे तो वो गीता राय को दिल दे बैठे। गुरु दत्त शादी के लिए जल्दी कर रहे थे। दोनों में महीनों तक रोमांस चला और शादी हुई। गीता दत्त के बाद उनकी जिंदगी में वहीदा रहमान आती हैं । यहीं से शुरू होती है प्यार से असफल होकर खुद से दूर भागने की उनकी प्रवृत्ति।

गुरु दत्त की असली कहानी थी प्यासा?
जब प्यासा फिल्म बन रही थी तो इस बात की चर्चा थी कि इसकी कहानी गुरु दत्त की निजी जिंदगी पर आधारित है। पर ये सिर्फ गुरु दत्त की कहानी नहीं है। इसमें लेखक अबरार अल्वी की जिंदगी की घटनाएं भी शामिल हैं। ये भी कहा जाता है कि इस फिल्म की कहानी गुरु दत्त ने लिखी थी। पर अबरार अल्वी ने बताया था कि गुरु दत्त ने सिर्फ छह पन्ने की कहानी लिखी थी और उसमें नायिका सिर्फ मीना थी। गुलाबो का चरित्र तो अबरार अल्वी ने जोड़ा।

दरअसल जब अबरार मुंबई आए थे तो वो एक वेश्या के पास जाते थे। उस वेश्या के साथ के उनके अनुभव और गुरु दत्त की प्रेमिका रहीं मीना के किस्से को जोड़कर प्यासा की कहानी बुनी गई थी। गुरु दत्त की एक और अदा थी कि वो किसी चीज से बहुत जल्दी संतुष्ट नहीं होते थे। कई बार तो उन्होंने कई रील शूट होने के बाद फिल्म को रद्द करके नए सिरे से शूट किया। प्यासा फिल्म के कई रील शूट हो चुके थे। गुरु दत्त को अपना रोल पसंद नहीं आ रहा था। उन्होंने सोचा कि इस भूमिका के लिए दिलीप कुमार बेहतर अभिनेता हैं।

दिलीप कुमार करने वाले थे प्यासा
वो दिलीप साहब के पास पहुंच गए। दिलीप कुमार ने कई शर्तें रखीं। गुरु दत्त ने सभी मान लीं। दिलीप कुमार ने डेट्स दीं लेकिन तय समय पर स्टूडियो के सेट पर नहीं पहुंचे। घंटों की प्रतीक्षा के बाद गुरु दत्त ने फिर से मेकअप किया और फिल्म पूरी की। फिल्म के प्रीमियर पर दिलीप कुमार, निर्देशक के आसिफ और बी आर चोपड़ा के साथ पहुंचे थे। फिल्म समाप्त होने के बाद दिलीप कुमार ने बी आर चोपड़ा से कहा, थैंक गाड, मैं बाल-बाल बच गया, इस फिल्म की भूमिका करता तो खूब हंसी उड़ती। ये अलग बात है कि बाद के दिनों में दिलीप कुमार को प्यासा में काम नहीं करने का अफसोस रहा। प्यासा लोगों को खूब पसंद आई थी और फिल्म जबरदस्त हिट रही।

कागज के फूल के लिए यह स्टार था पहली पसंद
प्यासा के बाद गुरु दत्त ने फिल्म कागज के फूल बनाई। इसमें भी वो अशोक कुमार को लेना चाहते थे। फिल्म बाजी के समय से ही गुरु दत्त की इच्छा थी कि वो अशोक कुमार को डायरेक्ट करें लेकिन कई तरह की समस्याओं के कारण अशोक कुमार फिल्म नहीं कर पाए। गुरु दत्त ने चेतन आनंद से संपर्क किया। उन्होंने इतने पैसे मांग लिए कि गुरु दत्त को फिर से खुद ही मेकअप करवाकर फिल्म करनी पड़ी।

फिल्म को दर्शकों ने नकार दिया। इस फिल्म में भी गुरु दत्त ने नायक की पीड़ा को उभारने का प्रयास किया लेकिन वो दर्शकों के गले नहीं उतरी। प्यासा का नायक बेहद गरीब था। उसके दुख को दर्शकों ने स्वीकार कर लिया। कागज के फूल के नायक की अमीरी उसके दुख से दर्शकों को जोड़ नहीं पाई। एक अमीर आदमी का पारिवारिक दुख दर्शकों के गले नहीं उतर सका। फिल्म बेहद कलात्मक बनी पर भावनात्मक संघर्ष का चित्रण कमजोर माना गया।

फिल्म की असफलता से टूट गए थे एक्टर
इस फिल्म की असफलता ने गुरु दत्त को अंदर से तोड़ दिया। तब तक उनकी पारिवारिक जिंदगी संघर्ष के रपटीली पथ पर आ चुकी थी। शराब की आदत बढ़ने लगी थी। वहीदा रहमान के साथ उनके संबंधों की चर्चा चरम पर थी। इस दौर में ही उन्होंने फिल्म चौदहवीं का चांद बनाने की सोची। फिल्म बन गई। इसके प्रदर्शन में बाधा खड़ी हो गई।

ये फिल्म मुस्लिम समाज पर बनी है। देश का विभाजन हो चुका था। फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर्स का मानना था कि विभाजन के बाद मुस्लिम समाज का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान चला गया था। मुस्लिम समाज की कहानियों का बाजार सिकुड़ गया था। दरवाजा और चांदनी चौक जैसी फिल्में फ्लाप हो गई थीं। किसी तरह गुरु दत्त ने डिस्ट्रीब्यूटर्स को तैयार किया। फिल्म जबरदस्त हिट रही।

दर्द को पर्दे पर उकेरने में अव्वल थे गुरु दत्त
इसके बाद गुरु दत्त ने साहब बीवी और गुलाम बनाई। मीना कुमारी से छोटी बहू का ऐसा अभिनय करवाया कि उनकी भूमिका अमर हो गई। इस फिल्म के दौरान भी अनेक बधाएं आईं। ऐसा प्रतीत होता है कि जिंदगी और कारोबार की बाधाएं और उससे उपजे दर्द से गुरु दत्त को बेहतर करने की उर्जा मिलती थी। वो व्याकुल मन से अपने दर्द को रूपहले पर्दे पर इस तरह से पेश करते थे कि दर्शक उसके मोहपाश में बंधता चला जाता था।

कागज के फूल भले ही फ्लाप रही हो लेकिन आज उसकी कलात्मकता भारतीय सिनेमा को गर्व का अवसर देती है। गुरु दत्त ने अपनी छोटी सी जिंदगी में हिंदी सिनेमा को वो ऊंचाई दी जहां पहुंचना किसी भी निर्देशक के लिए एक सपने जैसा है। फिल्मकार गुरु दत्त में बेहतर करने की जो ललक थी वो उनको हमेशा व्याकुल कर देती थी। व्याकुलता और दर्द ने असमय गुरु दत्त की जीवन लीला समाप्त कर दी।

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