बलिया के सिद्धांत चतुर्वेदी का किसी समय हिंदी सिनेमा में ऐसा रौला रहा है कि बच्चन परिवार तक उनकी धमक नजर आती रही। उनके रिश्ते और राज खूब सुर्खियां बनीं। हॉलीवुड फिल्मों के हिंदी संस्करण तक में उनकी आवाज गूंजी। लेकिन, फिर उनका अपना बर्ताव उन पर भारी पड़ने लगा। ‘गली बॉय’ की सफलता का नशा उनके सिर से अब भी उतरा नहीं है। जब ‘गली बॉय’ हिट हुई थी तो इसके निर्माताओं में शामिल फरहान अख्तर व रितेश सिधवानी को भी फिल्म के साइड हीरो में एक आग दिखी थी।
हिंदी सिनेमा में खून खराबे से भरी हिंसक फिल्मों की वापसी ‘युद्रा’ से ही होनी थी। लेकिन, फिल्म ने रिलीज होने में इतना समय ले लिया कि इसके पहले आईं ‘एनिमल’ और ‘किल’ जैसी फिल्में सारा मजा बटोरकर चलती बनीं। फिल्म में मेन विलेन का नाम सिकंदर है। उसने किसके कहने पर एक पुलिसवाले को मारा और इस पुलिसवाले का बेटा कैसे इसका बदला लेगा? इतनी सी इसकी कहानी है।
रवि उध्यावर का दूसरा उदय
फिल्म ‘मॉम’ बनाकर हिंदी सिनेमा के दिग्गज फिल्म निर्माताओं को भाए निर्देशक रवि उध्यावर की फिल्म यात्रा का ये पड़ाव उनकी पहली फिल्म के सात साल बाद आया है। फिल्म देखकर जान ये भी पड़ता है कि उनके पास कहानी कहने की कला तो है, बशर्ते कहानी उनके नियंत्रण में हो। यहां, दिग्गज लेखक श्रीधर राघवन का रुतबा रवि के दूसरे उदयकाल पर भारी है। कहानी एक ऐसे बच्चे की है जिसके दिमाग को जन्म से पहले पांच मिनट तक ऑक्सीजन ही नहीं मिली। डॉक्टर बताते हैं कि इसके चलते उसके दिमाग में केमिकल लोचा है। वह गिरगिट पालता है।
स्कूल के दिनों से ही विरोधियों की जान लेने की कोशिश करता है। बचपन से उसकी एक दोस्त भी है। उसके पहले बताया ये जाता है कि अलग अलग उम्र के तीन पुलिस अफसर हैं। तीनों के कांधे पर तीन-तीन स्टार लगे हैं, साथ में आईपीएस भी लिखा है! इनमें से एक का बच्चा है युद्रा। दूसरा इसे पालता है। तीसरे की बेटी से ये प्यार करता है। और, बदला इसे लेना है उस ड्रग माफिया से जितने उसके मां-बाप को बीच रास्ते निपटा दिया।
कहानी ही सबसे कमजोर कड़ी
फिल्म ‘युद्रा’ की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी श्रीधर राघवन की लिखी कहानी और इसका स्क्रीनप्ले ही है। कहानी का नायक गुस्सेवाला है। उसका होते होते रह गया ससुर उसे इस गुस्से को हथियार बनाने की बात भी समझाता है लेकिन फिल्म की कहानी अपने ही नशे में चूर होकर कुछ यूं परदे पर लुढ़कती है कि हिंदी सिनेमा के धाकड़ दर्शक शुरू के 10 मिनट देखने के बाद पूरी फिल्म की कहानी खुद ही अपने दिमाग में लिख सकते हैं।
फिल्म करीब करीब उन्हीं पन्नों पर अटकती भटकती रहती है, जिन पर लिखी कहानियां दर्शक लगातार देखते आए हैं। कहानी में कुछ नया न होने के बाद भी निर्देशक रवि उध्यावर ने एक कमजोर अभिनेता का नया सूरज उगाने की कोशिश अपनी तरफ से पूरी की है। कमजोरी यहां फरहान अख्तर और अक्षत घिल्डियाल की भी दिखती है जिन्होंने भेड़ों को मारकर शेर का शिकार करने निकला है, जैसे औसत से संवाद लिखकर इस फिल्म को और औसत बना दिया है।
तकनीकी कौशल से फिर भी चमकी फिल्म
कथा, पटकथा और संवादों में कमजोर फिल्म का स्वाद कसैला है लेकिन फिर भी इसे थाली में करीने से सजाकर दर्शकों के सामने पेश करने की कोशिशों में रवि उध्यावर को जय पिनाक ओझा ने बहुत मदद की है। उनकी सिनेमैटोग्राफी जॉन विक टाइप के एक्शन को फिल्माने में पूरी तरह चुस्त-चौकस है। फिल्म की जो भी तारीफ की जा सकती है, उसमें इसके एक्शन का नंबर भी सिनेमैटोग्राफी के साथ पहला है।
फेडेरिको सुएवा ने साइकिल पर चेज सीक्वेंस अच्छा गढ़ा है। जिन लोगों ने हाल ही में आई फिल्म ‘मदर’ देखी है, फेडेरिको के एक्शन कोरियोग्राफी का स्तर उन्हें पता है। फेडेरिका के साथ देसी एक्शन डायरेक्टर सुनील रॉड्रिग्स ने भी अच्छा काम किया है। दोनों ने मिलकर फिल्म को आखिर तक देखते रहने की एक वजह बनाए रखी है।
जावेद अख्तर ने लिखा ‘आने दे हवा’
हिंदी फिल्मों के लिए पंजाबी गाने एक बड़ी बाधा बनते जा रहे हैं। अच्छी खासी चलती फिल्म में जब सब लोग हिंदी में या अंग्रेजी में भी बात कर रहे हों, तो एकदम से एक पंजाबी गाना टपकते ही फिल्म की बरसाती तानने की बजाय इसे सीलन भरा बना देता है।
यही फिल्म ‘युद्रा’ में भी हुआ। दूसरी तरफ जावेद अख्तर के लिखे बाकी दोनों गानों को सुनकर लगता है कि उनकी कलम में अब भी जान बाकी है। पीयूष-शाजिया की जोड़ी ने ‘आने दे हवा’ को कोरियोग्राफ भी अच्छा किया है और राघव जुयाल की डासिंग स्टाइल को हू ब हू कॉपी करके कम से कम इस गाने में सिद्धांत ने खुद को फिल्म का हीरो साबित किया है।
सिद्धांत पर हर फ्रेम में भारी मालविका
सिद्धांत चतुर्वेदी का अभिनय इस फिल्म में बहुत ही कच्चा दिखता है। उनके चेहरे के भाव दृश्य की मांग के अनुसार बदलते नहीं हैं। गुस्सा उनका स्थायी भाव है और इस चक्कर में न वह प्रेमिका के साथ होने पर प्यार जता पाते हैं और न ही उससे झगड़ा होने पर तकरार। मालविका मोहनन की कद-काठी आकर्षक है और हिंदी सिनेमा में दीपिका पादुकोण के बाद उसी डील डौल की दूसरी अभिनेत्री की कमी वह पूरी कर सकती हैं।
राघव जुयाल की ये फिल्म ‘किल’ से पहले आनी थी, लेकिन अब उनका अभिनय इसी फिल्म का पैमाना मानकर नापा जाना है तो दर्शकों की उम्मीदों पर खरा उतरना उनके लिए आसान नहीं होगा। फिल्म ‘एनिमल’ मे बॉबी देओल के भाई बने सौरभ सचदेवा का अक्स भी उनके इस किरदार में बार बार झलकता दिखता है। राम कपूर छोटा परदा छोड़ बड़े परदे पर जमने की कोशिश अच्छी कर रहे हैं। गजराज राव का किरदार फिल्म का सरप्राइज एलीमेंट है लेकिन उनकी शख्सियत पर ये जमता नहीं है। शिल्पा शुक्ला की जगह किसी दमदार अदाकारा को लिया गया होता तो फिल्म का क्लाइमेक्स और मजबूत हो सकता था…! लेकिन..!