
पश्चिम बंगाल में राज्यपाल को हटाकर मुख्यमंत्री को विश्वविद्यालयों का कुलपति बनाने वाले तीन विधेयकों को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मंजूरी नहीं दी। इसके साथ ही राज्यपाल सीवी आनंद बोस पहले की तरह कुलपति बने रहेंगे।
पश्चिम बंगाल की राजनीति और शिक्षा व्यवस्था से जुड़े एक बड़े फैसले में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने राज्य विधानसभा से पारित तीन संशोधन विधेयकों को मंजूरी देने से इनकार कर दिया है। इन विधेयकों के जरिए राज्यपाल की जगह मुख्यमंत्री को राज्य संचालित विश्वविद्यालयों का कुलपति बनाने की कोशिश की गई थी। राष्ट्रपति के फैसले के बाद अब राज्यपाल सीवी आनंद बोस ही पहले की तरह विश्वविद्यालयों के कुलपति बने रहेंगे।
राष्ट्रपति के इस निर्णय से साफ हो गया है कि फिलहाल पश्चिम बंगाल में उच्च शिक्षा संस्थानों की प्रशासनिक संरचना में कोई बदलाव नहीं होगा। राज्य सरकार और राजभवन के बीच लंबे समय से चली आ रही खींचतान के बीच यह फैसला अहम माना जा रहा है। राष्ट्रपति द्वारा मंजूरी रोके जाने के बाद मौजूदा कानून लागू रहेगा, जिसमें राज्यपाल को पदेन कुलपति का अधिकार दिया गया है।
तीन विधेयकों पर रोकी गई मंजूरी
जानकारी के मुताबिक, जिन तीन विधेयकों पर राष्ट्रपति ने सहमति नहीं दी है, उनमें पश्चिम बंगाल यूनिवर्सिटी लॉज़ (संशोधन) विधेयक 2022, अलीया यूनिवर्सिटी (संशोधन) विधेयक 2022 और पश्चिम बंगाल यूनिवर्सिटी ऑफ हेल्थ साइंसेज (संशोधन) विधेयक 2022 शामिल हैं। ये सभी विधेयक जून 2022 में विधानसभा से पारित हुए थे। उस समय पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ थे। बाद में मौजूदा राज्यपाल सीवी आनंद बोस ने अप्रैल 2024 में इन विधेयकों को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखा था।
राज्यपाल ही रहेंगे कुलपति
राष्ट्रपति के फैसले के बाद साफ हो गया है कि राज्य सहायता प्राप्त विश्वविद्यालयों में कुलपति का पद राज्यपाल के पास ही रहेगा। लोक भवन के एक अधिकारी ने बताया कि इन विधेयकों को मंजूरी नहीं मिलने के कारण मूल कानून यथावत लागू रहेंगे। इन कानूनों में स्पष्ट प्रावधान है कि राज्यपाल अपने पद के कारण विश्वविद्यालयों के कुलपति होंगे। इस फैसले से राज्यपाल सीवी आनंद बोस की भूमिका और अधिकार पहले जैसे बने रहेंगे।
क्यों लाया गया था संशोधन विधेयक?
राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच विश्वविद्यालयों के प्रशासन को लेकर लंबे समय से विवाद चला आ रहा था। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की सरकार का तर्क था कि राज्यपाल के पास कुलपति का पद होने से नियुक्तियों और प्रशासनिक फैसलों में देरी होती है। सरकार का कहना था कि यदि मुख्यमंत्री कुलपति होंगे तो फैसले तेजी से लिए जा सकेंगे और विश्वविद्यालयों का संचालन ज्यादा प्रभावी होगा। इसी दलील के आधार पर यह विधेयक लाए गए थे।



